देहरादून- पहाड़ के जिन सीढ़ीदार खेतों पर मेहनत करके हमारे पुरखों ने हमें महानगरों में रुख करने के काबिल बनाया। जिन सतनाजा फसलों को पैदा करने वाले पहाड़ी खेतों से हमने मुंह मोड़ लिया है। संभव है कि अब जल्द ही उन खेतों में किसी मुम्बइया सेठ का नौकर सोना उगा रहे हों। जबकि हम अपने ही खेतों में श्रमिक के तौर पर नौकरी करके खुश हो रहे हों।
दरअसल सूबे की सरकार पहाड़ी हिस्से से हो रहे पलायन से सहमी हुई है। गांव खाली हैं जबकि खेत खलिहानों पर जंगली जनवरों का पहरा है। ऐसे में सरकार चाहती है कि पहाड़ के सीढीदार खेत एक बार से सोना उगलने के काबिल बने। लिहाजा सरकार पट्टे पर या सहकारिता खेती का विचार कर रही है। इसके लिए पूरी कार्ययोजना और नीति को तैयार करने के लिए सरकार ने एक ’विशेषज्ञ समिति’ का गठन किया गया है।
’विशेषज्ञ समिति’ में अपर सचिव, उद्यान को अध्यक्ष नामित किया गया है। इसके साथ ही निदेशक उद्यान, निदेशक जड़ी-बूटी शोध एवं विकास संस्थान गोपेश्वर, निदेशक उत्तराखण्ड चाय विकास बोर्ड अल्मोडा, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, भेषज विकास इकाई देहरादून, वैज्ञानिक प्रभारी सगन्ध पौधा केन्द्र, सेलाकुई देहरादून, सचिव राजस्व विभाग (उत्तराखण्ड शासन द्वारा नामित अधिकारी) को ’विशेषज्ञ समिति’ में सदस्य नामित किया गया है। समिति 8 से10 सालों के लिए एक वृहद कार्ययोजना तैयार करेगी और इस बारे में एक माह के भीतर अपनी रिपोर्ट शासन को उपलब्ध करायेगी।
माना जा रहा है कि राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन रोकने और निवेशकों को आकर्षित करने से जहां राज्य हर्बल स्टेट, बागवानी प्रदेश ,चाय उत्पादन और भांग की पैदावर के लिए मशहूर हो सकता वहीं बंजर पड़े खेत सोना उगल सकते हैं।ऐसे में सरकारी ख्वाहिश है कि पहाड़ के खाली खेतों में बाहरी निवेश से बहार लाई जाए। ताकि उत्तराखण्ड राज्य में को-आॅपरेटिव फार्मिंग, कांट्रेक्ट फार्मिंग एवं लीज फार्मिंग की संभावनाएं बड़ा विकल्प बन सकें।