पिथौरागढ़- उस संजीवनी बूटी की खोज के लिए राज्य सरकार ने 200 करोड़ का बजट तय किया है जिसे खोजने में हनुमान जैसे भगवान भी चकरा गए थे, जब पहचान नहीं पाए तो सारा पहाड़ ही दक्षिण में ले गए थे जानकार सुषैन वैद्घ के पास, और जिन जड़ी- बूटियों को स्थानीय ग्रामीण पहचानते हैं उनके लिए कई काएदे कानून और कई महकमे बना दिए गए हैं राज्य सरकार नें। खैर 200 करोड़ के बजट से आप ये मत सोचना कि राज्य कई तरह के प्रदेश बनने के बाद अब हर्बल स्टेट बन जाएगा और उसकी भेषज संग्रहण की क्षमता में इजाफा हो रहा होगा और सरकार राज्य को जड़ी बूटी प्रदेश बनाकर ही दम लेगी। हकीकत ये है कि राज्य में अब उतनी जड़ी- बूटी भी एकत्र नहीं हो पाती जितनी उत्तर प्रदेश के जमाने में हुआ करती थी।
हालांकि अब जड़ी-बूटी की रखवाली करनें वाले एक नहीं कई संस्थान हैं। बावजूद इसके नतीजा निराश कर रहा है। कभी जड़ी बूटी इकट्ठा करने का काम भेषज संघ किया करता था तब गांवों में कांटे लगा करते थे और ग्रामीण जंगलों से एकत्र की गई जड़ी बूटी को भेषज संघ को खुद नगद बेचा करते थे। जड़ी बूटियों का संग्रहण तब मेहनतकश ग्रामीणों के लिए फायेदा का सौदा था और वे इसमें दिलचस्पी भी लेते थे।
लेकिन अलग राज्य बनने के बाद जड़ी-बूटी के कई रखवाले बन गए हैं जिनमें भेषज संघ, सहकारिता विभाग,जड़ीबूटी शोध संस्थान,संगध पादप संस्थान, वन विभाग और अब संजीवनी की तलाश करने वाला आयुष भी शामिल है। लेकिन जड़ी-बूटी का कारोबार राज्य की रीढ नही बन पाया। कभी जड़ी-बूटी संग्रहण को अपनी आमदनी का जरिया बनाने वाले ग्रामीणों की माने तो जब से वन नीति बनी है तब से जड़ी बूटी संग्रहण का बेड़ा गर्क हो गया। क्योंकि जब तक जंगलात से इजाजत मिलती है तब तक जड़ी बूटी जंगल में खत्म हों जाती है ।
दरअसल राज्य के उच्च और निम्न हिमालयी क्षेत्रों में कई तरह की जड़ी बूटियां मिलती हैं जिनको टाईम तक ही निकाला जा सकता हैं क्योंकि कई जड़ी बूटियां ऐसी हैं जिनकी उम्र ही कम होती समय पर दोहन हो गया तो ठीक वरना कहां गायब हुई जानकार ही बता सकते हैं। स्थानीय अनुभवी ग्रामीणों की माने तो सरकार बहुत ज्यादा हासिल करनें को चक्कर में कम से भी चूक गई है सरकारी नई नीतियाें से न तो जड़ी-बूटी संग्रहकों को फायदा मिल रहा है और न जड़ी बूटी को। आलम ये है कि नई नीति से तंग आकर ग्रामीण भेषज संग्राहकों ने जड़ी-बू़टी इकट्ठा करने के धंधे से तौबा कर ली है।
ऐसे मे सवाल उठता है कि अगर अनुभवी लोगों को नए नियमों से दिक्कत हो रही है और जड़ी बूटी के भंडारण में भी इजाफा नहीं हो रहा है तो नए नियम और कई विभागों को जिम्मेदारी दे कर क्या फायदा हुआ! शायद ठीक ही कहा है बिल्लियों की भीड़ चूहे नहीं मारा करती।