देहरादून (आशीष तिवारी)- अबकी बार बीजेपी सरकार। जी, जनता का संदेश तो यही है। लेकिन जो संदेश बीजेपी के लिए है उसी संदेश का एक पहलु कांग्रेस के लिए भी है। जाहिर तौर पर कांग्रेस अपनी हार के राजनीतिक कारण तलाश करेगी। लेकिन इस सबके बीच हमने भी कोशिश की है उन वजहों को टटोलने की जो राज्य में कांग्रेस की अब तक सबसे बड़ी सियासी हार का सबब बन गईं।
उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने अपना हर दांव मुख्यमंत्री हरीश रावत के ही सहारे खेला। राज्य में ये मुहावरा दे दिया गया कि न खाता न बही जो हरीश रावत कहें वही सही। लेकिन क्या हरीश रावत के ऊपर दांव खेलना गलत साबित हुआ है या इस भगवा लहर में कोई भी होता उसका हाल हरीश रावत जैसा ही होता।
ये हम इसलिए भी कह रहें हैं क्योंकि हरीश रावत ने जिस सियासी गुणा भाग के चलते उत्तराखंड में पहली बार बतौर सीएम दो दो सीटों से चुनाव लड़ा वहां दोनों ही जगहों पर हार गए। तो क्या ये मान लिया जाए कि हरीश रावत के करने के लिए कुछ बचा ही नहीं था।
हरीश रावत अपनी सभाओं में जिन चार मसलों का सबसे अधिक जिक्र करते रहे और ये उम्मीद करते रहे कि इन मसलों को सुन कर जनता समझेगी और कांग्रेस को वोट, आइए पहले उन मुद्दों पर ही नजर डाल लेते हैं।
हरीश रावत ने दावा किया –
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केंद्र सरकार, राज्य को मिलने वाली आर्थिक सहायता को लगातार कम कर रहा है।
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कांग्रेस के सभी दागी अब बीजेपी के पास हैं
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मंडुवा फाफर और रामदाना का जिक्र अक्सर हुआ
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इन सबसे बढ़कर हरीश रावत बार बार इस चुनाव को उत्तराखंडियत का चुनाव बताते रहे।
तो क्या ये मान लिया जाए कि ये चारों अहम मसले कांग्रेस के लिए वोट नहीं बटोर पाए। या फिर हरीश रावत की इकलौती छवि के सहारे चुनाव लड़ना कांग्रेस के लिए गलत फैसला साबित हुआ। हरीश रावत का स्टिंग में फंसना और शराब कारोबारियों के साथ रिश्तों की गांठ ने उनकी सियासी गांठ को ढीला कर दिया।
पीके टीम को कमान सौंपना और पीके टीम के साथ खांटी कांग्रेसियां का तालमेल न बैठा पाना भी हार की वजहों में गिना जा सकता है।इस सबके बीच सियासत का सच यही है कि हरीश रावत अब वर्तमान नहीं बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री हो चुके हैं।जिस मोदी के साथ वो सियासत की जंग लड़ते रहे उस जंग में वो हार गए हैं और शायद जंग में वजहों से अधिक अहमियत परिणामों की होती है।