आशीष तिवारी- ये इस राज्य का सच है और शायद ये इसी राज्य का ही सच हो सकता है कि अब यहां उम्मीदें भी गैरसैंण नहीं होना चाहतीं। उम्मीदों की उम्मीद भी टूटने लगे तो समझ लीजिए कि अब उम्मीदें भी उम्मीद नहीं रखना चाहतीं। दरअसल हम जिस गैरसैंण को उत्तराखंड के आमजन के मानस का प्रतीक मान रहें हैं वो तो महज एक राजनीतिक अवसाद भर है। एक ऐसा अवसाद जिसे किश्तों में डर डर कर जिया जा रहा है। क्या हुआ अगर आपके पास लोकतंत्र की दी हुई सबसे बड़ी ताकत है। आप सिरों को गिन गिनाकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंच सकते हैं लेकिन एक उम्मीद के अवसाद को खत्म नहीं कर सकते।
कुछ नहीं, अब तो लगभग हर मामले में सत्ता का चरित्र एक जैसा हो चला है। डर का हिस्सा किसी के हिस्से में अधिक है तो कोई कम डरे हुए ही चला गया। राज्य सत्ता की इच्छाशक्ति अगर इतनी ही डरी रही तो गैरसैंण के भविष्य पर निर्णय लेने का साहस वर्तमान कभी कर ही नहीं कर सकता। हमारे पास दुहाई देने भर की भी इच्छाशक्ति नहीं होती है और हम खुलेआम दावे कर जाते हैं। ना जाने सरेराह झूठ बोलने की इतनी ताकत कहां से आती है हममें।
ये बताते बताते कि ये राज्य आंदोलनकारियों ने बनाया है पूरे 17 बरस बीतने को हैं। आंदोलन का काल अतीत हो गया लेकिन लक्ष्य प्राप्ति का बड़ा हिस्सा अब भी मानों प्रसव और प्रसूता भर की स्थिती में नहीं पहुंच पाया। गैरसैंण को हर बार सुविधाओं के हिसाब से विकसित करने की कोशिश का हवाला देकर निर्णय को टाल दिया जाता है। मूल प्रश्न तो यहीं से प्रारंभ हो जाता है। क्या सुविधा भोगी सत्ता गैरसैंण जैसे असुविधाजनक स्थान, असुविधाजनक वातावरण में कुछ वर्ष भी नहीं बिता सकती। हमें पता है, सुविधाएं आपको संकीर्ण बनाएंगी और आप उन्हीं के बीच रह कर असुविधाओं को दूर करने की नीतियां बनाएंगे।
गैरसैंण को आपसे कुछ नहीं चाहिए था। गैरसैंण एक उम्मीद है, एक विचार है। पहाड़ को पहाड़ में रखने की कोशिश है। गुस्ताखी माफ लेकिन ये गैरसैंण का दुर्भाग्य है कि उसे सत्ता का शीर्ष भी सुविधाभोगी नजरिए से ही देखना चाहता है। गैरसैंण में रहकर कोई गैरसैंण की बात नहीं करना चाहता।