आशीष तिवारी। कल्पना कीजिए कि नीति और माणा की दुरूह घाटियों में उत्तराखंड की सरकार चुनने के लिए वोट डाले जा रहें हों। लोकतंत्र के वाहक अपनी बारी के इंतजार में कतारबद्ध हों। कोई बुजुर्ग हो, कोई बीमार सा हो। कोई दूर दराज से न सिर्फ वोट डालने बल्कि इस धरती पर मानवीय समाज के राजनीतिक आदर्श परिस्थितियों को स्थापित करने या सामान्य तौर पर कहें तो लोकतंत्र के यज्ञ में आहूति डालने को आतुर खड़ा हो। लंबे इंतजार के बाद वो वोट डाले और इस बात की तसल्ली कर ले कि उसने अब अपनी सरकार चुन ली। सरकार सिर्फ सरकार नहीं होती, उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में ये सपनों को सच करने का जरिया होती है। भविष्य की बुनियाद को पहाड़ से तेज गति से आती नदियों से बचाने की उम्मीद होती है।
फिर जब गोविंद सिंह कुंजवाल जैसे विधायक जो विधानसभा के अध्यक्ष भी रहें हों वो ये बताते हैं कि हरीश रावत की सरकार गिराने के लिए सौ करोड़ रुपए की पेशकश की गई थी तो समझिए कि उत्तराखंड का लोकतंत्र मुनस्यारी से हनोल तक छलनी छलनी हो रहा है। जब सरकारें सौ करोड़ रुपए से ही गिर सकती हैं तो सौ दौ सौ करोड़ लेकर बन भी सकती हैं। फिर क्यों छलावा है लोकतंत्र का? फिर क्यों मुगालता कि आवाम अपनी सरकार खुद चुन रही है?
भले ही कुंजवाल के आरोपों की सत्यता अभी साबित न हुई हो लेकिन राजनीतिक हस्तियों का मानस पटल तो उत्तराखंड के आम लोगों के सामने स्पष्ट है। इस मानस पटल पर सरकारें आम नागरिकों की उम्मीदें नहीं होतीं, प्रभुत्व जमाने का जरिया होती हैं। सत्ता में मिलनी वाली शक्ति लोकतंत्र की अवधारणा से परे हो चली है। इस शक्ति को हासिल करने के लिए उत्तराखंड के लोगों को भी दरकिनार किया जा सकता है। भले ही ये शक्ति आम आवाम के लिए, उनके जरिए और उनकी ही हो।
कुंजवाल का लगाया आरोप हो सकता है वक्त के शून्य में समाहित भी हो जाए लेकिन इसकी आंच से लोकतंत्र के धरातल पर उगे कांटे उत्तराखंड के आमजनमानस को हर चुनाव में चुभेंगे। उसे ये सोचने पर मजबूर करेंगे कि जो सरकार वो चुन रहा है उसे कोई सौ करोड़ में गिराने की तो नहीं सोचेगा।