देहरादून। राज्य गठन के 16 साल बाद भी उत्तराखण्ड की आधी आबादी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। विकास की हसरत लिए उत्तराखण्ड आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों के कंधो से कंधे मिलाकर हिस्सा लिया। लेकिन आज विकास की बात करने वाली राजनीतिक पार्टियां चुनावी मैदान में महिलाओं को उतारने से परहेज कर रही हैं।
उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी से तो हर कोई वाकिफ है। लेकिन राज्य गठन के 16 साल बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई खासा सुधार नहीं हो पाया। न तो महिलाएं विकास का हिस्सा बन सकीं और न ही विकास महिलाओं के हिस्से ही आया। अगर बात की जाए विधान सभा चुनावों की तो यहां भी महिलाओं की स्थिति दयनीय रही।
उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव में महिलाएं
आंकड़ों के मुताबिक, साल 2002 में 72 महिला प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतरी लेकिन महज 4 महिलाएं ही जीत दर्ज कर सकीं। वहीं साल 2007 के विधानसभा चुनावों में 56 महिलाओं ने दावेदारी की लेकिन सिर्फ 4 महिलाएं ही विधानसभा पहुंच पाई। तो साल 2012 के आंकड़े भी कुछ खास नहीं रहे, इस साल 63 महिलाओं ने चुनावी हुंकार भरी लेकिन इनमें से 5 महिलाएं ही जीत पाईं।
साल | चुनाव लड़ी | जीती |
2002 | 72 | 4
|
2007 | 56 | 4 |
2012 | 63 | 5 |
विधानसभा से लेकर लोकसभा तक महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के दावे तो सियासतदां खूब करते है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। सवाल ये उठता है कि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की पैरवी करने वाले ही आखिर महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारने से क्यों कतराते है। आखिर क्यों पार्टियां महिला प्रत्याशी पर दांव खेलने से परहेज करती हैं।