लक्सर- इसे सरकार की लापरवाही कहें या बिचौलियों का दबाव कि आखिरकार किसानों को औने-पौने दामों में अपनी धान की फसल बेचने को मजबूर होना पड़ा। सरकार की लापरवाही इसलिए क्योंकि किसानों की हमदर्द बनने वाली सरकार अपने सरकारी धान खरीद केंद्रों में किसान से नगद धान खरीद नहीं पाई।
लिहाजा किसान की मजबूरी का फायदा उठाते हुए बिचौलियों ने औने-पौने दामों में किसानों का धान खरीदा। जिस किसान ने छह महीने तक भरी बरसात में खेतों में अपना पसीना बहाया उसके हाथ मुनाफा तो छोड़िए वो लागत भी नहीं आई जो उसने धान बोने में खर्च की थी।
घर का खर्च और गेंहू बोने के लिए नगदी की दरकार में किसानों ने सरकारी केंद्र के बजाए बिचौलियों को अपनी फसल बेच दी। सरकार समर्थन मूल्य का लोभ देकर उधार में किसान से धान खरीदना चाहतीथी। जबकि बिचौलिए औने-पौने दाम दे रहे थे लेकिन नगद। ऐसे में मजबूर किसानों ने बिचौलियों के दहलीज पर अपना माथा टेकना मुनासिब समझा।
तय है कि अब सरकार दबाब में उसी धान खरीद नीति को मंजूर कर चुकी है जिसमें कच्चा आढ़ती यानि बिचौलिए मुनाफा कमाते हैं लिहाजा इस बार भी अन्नदाता के हाथ रीते रहे।
हरिद्वार जिले की बात की जाए तो जो किसान थोड़ा मजबूत हैं सिर्फ उन्होंने ही सरकारी खरीद केंद्रों पर अपना धान बेचा। जिले में खुले 7 सरकारी धान केंद्रों में महज लालढ़ांग के सरकारी धान केंद्र पर ही 1800 कुंतल धान इकट्ठा हो पाया।
बताया जा रहा है कि पहले सरकारी धान केंद्रों में नगद धान खरीदा जाता था लेकिन इस बार डबल इंजन के दौर में अन्नदाता धान की फसल को सरकारी खरीद केंद्र में नगद नहीं बेच पाए।
आखिर जिस सरकार के पास इतना बड़ा तामझाम और कई तरह के इंतजाम होते हैं वो किसान से नकद फसल नहीं खरीद पा रही है जबकि बिचौलिए किसानों से अभी भी चांदी काट रहे हैं और बाद में सरकार से भी मुनाफा कमाएंगे।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकार को सूबे में किसानों के हालात से वाकिफ नहीं है या फिर जानबूझ कर बिचौलियों को फायदा पहुंचाने की जुगत में रहती है। आखिर सरकार सरकारी खरीद केंद्र पर नगदी का इंतजाम क्यों नहीं करती, ताकि मेहनतकश अन्नदाता को उसकी मेहनत का वाजिब दाम मिल सके।