आशीष तिवारी। पियूष पांडे की एक पुस्तक है धंधे मातरम। पता नहीं इस किताब के अंदर क्या लिखा है लेकिन बाहर जो भी लिखा है सही लिखा है। इस बात में दो राय नहीं है कि किताब का शीर्षक ही इसका धंधा चमका देगा। देश में यूं भी धंधा चमकाने के लिए बहुतेरे काम हो रहें हैं। सच्चाई यही है कि वंदे मातरम गाने में किसी का इंटरेस्ट रह नहीं गया है। जन गण मन गाना भी कोरम पूरा करने से अधिक रह नहीं गया है। सिनेमा हॉल के अंधेरे में कार्नर की सीट का जुगाड़ देखने वाली पीढ़ी को देश का सर्वोच्च न्यायालय देशभक्ति की घुट्टी जबरिया पिलाए दिए दे रहा है। कहने को तो महज 52 सेकेंड में ही देशभक्ति साबित कर देनी है लेकिन कइयों को ये 52 सेकेंड भी किसिंग सीन से ठीक पहले आए कर्मशियल ब्रेक जैसे भारी लगते हैं।
क्या करिएगा, लेकिन देशभक्ति के प्रमाणिकरण की चलती फिरती दुकानों ने देश में एक नए किस्म का इंकलाब ला दिया है। देखने में तो ये इंकलाब सेहतमंद दिखता है लेकिन अक्सर छिछोरा हो जाता है। छिछोरा वो भी पूरे कॉन्फिडेंस के साथ। लॉजिकल छिछोरे भी इस श्रेणी में शामिल हैं। वैसे दुनिया में टू वे कम्युनिकेशन बेहतर माना जाता है लेकिन इस छिछोरयी में वन वे कम्युनिकेशन से ही काम चल जाता है। दो चार कंटाप और देशभक्ति आपके भीतर से निकाल कर सार्वजनिक कर दी जाएगी। पूर्णरुपेण स्वदेशी उपाय वो भी मुफ्त। वैसे ही जैसे जियो मुफ्त।
उत्तराखंड में एक राज्य मंत्री ने सार्वजनिक बयान दिया कि उत्तराखंड में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा। वैसे इस बयान के समय काल परिस्थिती में ही पूरा प्रदेश शराब बंदी की मांग कर रहा था। राज्य में शराब से राजस्व कमाने का लक्ष्य तकरीबन 1800 करोड़ का है। क्या पता मंत्री जी की तनख्वाह भी किसी शराब की दुकान पर आई नोट से मिलती हो। लोग चिल्लाते रहे और सरकार ने शराब बंदी से इंकार कर दिया। क्योंकि ये धंधा है। धंधे का अपना उसूल है। बस सरकार ने एक काम ही नहीं किया वो ये कि हर शराब के खरीददार को वंदे मातरम बोलना अनिवार्य करना। वैसे ये मान लिया जाना चाहिए कि जो शराब खरीद रहा है वो उत्तराखंड में ही तो रह रहा है और अगर उत्तराखंड में रह रहा है तो वंदे मातरम तो बोल ही रहा होगा। अब इस बात की क्या गारंटी कि पौवा गटकने के बाद किसी ने वंदे मातरम बोला या फिर धंधे मातरम बोला। बोलिए….धंधे मातरम।
(लेख के विचार लेखक के अपने हैं)