नैनीताल (योगेश शर्मा) – सूबे की सरकार दो कदम आगे चलती है फिर दो कदम पीछे धर कर वहीं आ जाती है। जिस एक्शन का पहले शोर-शराबा कर वाह-वाही लूटी जाती है कुछ अर्से बाद उसके साइड इफैक्ट का पता चलता है और सरकार की हालत उत्तराखंड की इस कहावत की तरह हो जाती है, “कख गै था बल कखि न, कि ल्याइन बल कुछ ना” इस बार भी सूबे की टीएसआर सरकार ने कुछ वैसा ही किया है।
चुनाव से पहले भाजपा ने हरीश रावत सरकार के आवंटित खनन पट्टों और स्टोन क्रशर पर उंगली उठाई। सत्ता में आते ही उन्हें टीएसआर सरकार ने आंवटन में गड़बड़ी बताते हुए प्रतिबंधित कर दिया और मीडिया में सुर्खियां बटोर कर अपनी पीठ थप-थपवा दी।
लेकिन अब जब राजस्व की बात छिड़ी तो सरकार को हरीश रावत सरकार के दौर वाले आवंटित निजी भूमि के खनन पट्टे और स्टोन क्रशर सही लगने लगे। सूबे की त्रिवेंद्र सरकार ने फिर खनन पट्टों और स्टोन क्रशर के परिमिटों को बहाल कर दिया। जिस कदम पर पहले त्रिवेंद्र सरकार ने वाहवाही लूटी और विपक्ष को बैकफुट पर ला दिया था। अब अपने फैसले को पलटकर हरीश रावत की राह चलने पर सरकार की किरकिरी होने लगी है। छींटाकशी करने वाला तबका तो सरकार के इस कदम को थूक कर चाटना जैसा बता रहा हैं।
लिहाजा भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट का कहना है कि वह इसके सम्बन्ध में मुख्यमंत्री से बात करेंगे और जिन पट्टों और स्टोन क्रेशर में अनिमियताएं है उनकी दोबारा से जांच करवाने की मांग करेंगे। भट्ट का तर्क है कि सूबे की पूर्ववर्ती हरीश रावत की सरकार ने आचार संहिता लागू होने से चार दिन पहले तकरीबन 81 खनन पट्टे और स्टोन क्रेशर के लाइसेन्स जारी किये थे।
बहरहाल बड़ा सवाल ये है कि, सूबे की सरकार उतावली में ऐसे कदम क्यों उठाती है जिसमे वो पहले फ्रंटफुट पर आती है और फिर बैकफुट पर जाने से पहले ही रन आउट हो जाती है। फिर चाहे वो मजबूत लोकायुक्त लाने का मसला रहा हो या अब रद्द खनन पट्टो और स्टोन क्रशर के लाइसेंस को बहाल करने का मसला।